पंचतत्व चिकित्सा बिना औषधियों (दवाइयों )के पंच महाभूतों (वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश एवं जल) के समायोजन का समन्वय है|
पंचतत्व चिकित्सा का आधार वैदिक चिकित्सा है, जिसका वर्णन सभी वेदों में धर्म ग्रन्थों व प्राचीन सप्त ऋषियों ( गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्यप एवं अत्रि) के दर्शन व उनकी रचनाओं में दिखते हैं ।
आयुर्वेद व योग से परिचित करवाने वाले ऋषियों जैसे – ऋषि पाणिनी, पतंजलि, चरक, वाग्भट्ट जी आदि ऋषियों ने भी मनुष्य व प्रकृति के संबंधो के विषय मे अपनी रचनाओं मे उद्धत किया है
- उदाहरण मात्र -
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे...
(अथर्ववेद, प्रथम अध्याय, प्रथम सूक्त)
जो रजोगुण, तमोगुण एवं सतोगुण तीन गुण और पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, तन्मात्रा एवं अहंकार सात दिव्य पदार्थ दिव्य रूप में सर्वत्र भ्रमण करते है, वाणी के स्वामी ब्रह्म उन तत्वों एवं पदार्थो की दिव्य शक्ति मुझे दे।
क्षिति जल पावन गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम शरीरा ।।
(तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में पंचतत्व का वर्णन)
जैसा हम सबको यह विदित है कि हमारा शरीर केवल पाँच तत्वों के संयोजन से बना है, अतः ध्यान रखिये कोई भी बिमारी आती है तो इन्ही (पंचतत्वो) के कम या ज्यादा होने से ही आती है। चाहे बिमारी कैसी भी हो, उसका नाम कुछ भी हो ।
महाभारत काल में ऐसी अद्भुत चिकित्सा पद्धति थी जो कि संध्या काल से सुबह के पहर तक 12 घण्टे से भी कम समय में योद्धा के कटे हुए अंगो और प्राणघातक चोटों से उबारकर पुनः युद्ध के मैदान में युद्ध के लिए तैयार कर देती थी। उसी महाभारत कालीन पँचतत्व चिकित्सा के अंश मात्र को समझ कर अब तक आचार्य श्री बृजमणि शास्त्री जी महाराष्ट्र, हरियाणा, छतीसगढ़, राजस्थान आदि राज्यों में शिविरों के माध्यम से व पलवल कुटिया पर अब तक हजारों असाध्य रोगियों को पिछले 5 वर्षो में स्वस्थ किया है। इस पुनित कार्य में संस्थान से सीखे हुये स्वयंसेवक देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी इस पुनित कार्य से रोगियों को लाभ पहुँचा रहें है।
पंचतत्व चिकित्सक सभी तरह के शारीरिक, मानसिक व स्त्रायुतंत्र के रोगों के रोगों पर चिकित्सा करता है। क्योकिं पंचतत्व चिकित्सा रोग की नहीं अपितु रोगी की सम्पूर्ण चिकित्सा है, अतः सभी उम्र और रोग के रोगी पंचतत्व चिकित्सा का लाभ ले सकते है।
पंचतत्व चिकित्सा अद्भुत परिणाम देती है, इसके लिए रोगी को बिना छिपाए फार्म पर पूरी
जानकारी देनी होती है, तथा चिकित्सक से कम से कम तीन दिन तक अपने अनुभव रखने होते है और कई बार रोगी के अनुसार चिकित्सा लम्बी भी चल सकती है, जिसे रोगी या उसके परिजन बताई गई चिकित्सा को स्वयं से घर पर दोहरा सकते हैं पूर्ण रूपेण स्वस्थ होने तक जिसमें जरूरत के अनुसार परामर्श की आवश्यकता हो सकती है।
चिकित्सक रोगी की केवल पाँचों बिगड़ी ऊर्जाओं का समन्वय करता है।
रोगी को पंचतत्व चिकित्सा के लिए एक फार्म में अपने विषय मे जानकारी देनी होती है। जैसे रोगी की जन्म तिथि, जन्म समय, समस्या घटने – बढ़ने का समय, रोगी को मलमूत्र, स्वाद, रुचि की जानकारी देनी होती है। जिसके माध्यम से चिकित्सक रोगी का विश्लेषण करके उसे हाथ–पैर में रंग या चुंबक लगाने के विषय में बताता है।
पंचतत्व बेहद प्रभावशाली है और अद्भुत परिणाम प्रदर्शित करती है, चिकित्सक और रोगी दोनों के लिए अद्भुत रोमांचकारी है।
पंचतत्व को भारत वर्ष में हर कोई जानता तो है, चाहे माने या न माने, जब भी किसी महान सामाजिक व्यक्तित्व की मृत्यु होती है, तो उनके अंतिम संस्कार के बाद प्रिंट मीडिया और डिजिटल मीडिया द्वारा सभी जगह दिखाई और सुनाई देता है कि नेताजी जो भी नाम के व्यक्ति हो, पंचतत्व विलीन हो गए।
परन्तु उसी व्यक्ति का इतिहास देखेंगे तो पायेगें जब भी वह व्यक्ति बीमार हुआ डॉक्टर ने सिर्फ विटामिन्स व मिनरल्स की ही गोलियां खिलाई है, उससे कभी यह नहीं कहा कि आपकी हवा, आकाश, अग्नि, जल, पृथ्वी असंतुलित हो गयी।
जबकी सर्वभौमिक सत्य यह है कि हमारा शरीर पंच महाभूतों से बना है, जिसकी पुष्टि श्री राम चरित मानस भी करता हैः-
क्षिती जल पावक गगन समीरा
पंच रचित अति अधम शरीरा
वेद कहते हैं कि सृष्टि/ब्रह्माण्ड में सभी जीव पंचतत्व/पंचमहाभूतों से रचित है और जो ब्रह्माण्ड में है वहीं पिंड में है।
यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे
इस सृष्टि में यह पंचतत्व उसी तरह से जीवों में विद्यमान है, जिस तरह ईश्वर कण-कण में विद्यमान है। जिसे अब आधुनिक विज्ञान ने जिनेवा में हुए प्रयोग में 14 मार्च 2014 को गोड़ पार्टिकल के नाम से माना भी है, वास्तविकता में यही पंचतत्व की महिमा में है कि यह जीवन से पहले और जीवन के बाद भी हर जगह विद्यमान है।
जब भी हम अपने घर की मरम्मत करते है तो उसमें ईंट, बालू, रोड़ी, सीमेटं आदि का
उपयोग करते है। हम क्यों नहीं उसकी मरम्मत कैल्शियम, एसिटलीन, एल्कोहल आदि किसी केमिकल से करते है क्योकि मकान का अस्तित्व मिट्टी से है तो हम मिट्टी के विभिन्न अवयवों से ही उसकी मरम्मत करेंगे। इसी तरह हम पूरी जिंदगी अपने शरीर को हष्ट-पुष्ट करने के लिए भोजन के रूप में पंचभूत निर्मित आहार ग्रहण करते है, पर अब वही हमारा शरीर रोगग्रस्त हो जाता है तो हम कैल्शियम, मैंगनीज, सल्फर, रसायन के चक्कर में जाते है क्यों रोग पंचमहाभूत तत्वों के असुंतलन के कारण हुआ और चिकित्सा रसायन में ? यदि इन्हीं पंचमहाभूत ऊर्जाओं (जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथ्वी) को सुव्यवस्थित कर दिया जाए तो रोगी को 5 मिनट में ही आराम मिलने लगता है।
इसी विधा का नाम ही पंचतत्व है। ना कोई औषधि ना कोई योग...
सर्वप्रथम हमें इन्हीं पाँच तत्वो (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) के संयोजन को समझना है जिससे यह हमारा शरीर निर्मित हुआ । इन पाँचो तत्वों के सबके अपने गुण धर्म है, और यह एक दूसरे के पूरक व नियंत्रक भी है। किसी भी तत्व की कमी या अधिकता से हमारे शरीर का संयोजन बिगड़ जाता है, जिससे बीमार हो जाते है।
प्रकृति भी इन्हीं तत्वों से निर्मित है, और इन्हें संतुलित करके पूरे वर्ष विभिन्न प्रकार के जलवायु, ऋतुएं जैसे - सर्दी, गर्मी, वर्षा प्रदान करती है, जिसका सीधा प्रभाव मानव शरीर पर दिखाई देता है। जैसे - सर्दी के मौसम में स्वभावतः हर प्राणी के शरीर में मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। हेमंत ऋतु में शरीर में रूक्षता (खुजली) बढ़ जाती है। अगर यही मूत्र बढ़ने की समस्या गर्मी में हो जाये तो यह एक रोग माना जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने ज्ञान से प्रकृति के इस संयोजन को आसानी से समझ लेता है और सोचता है कि अभी प्रकृति में जल की प्रधानता है इसलिए मूत्र अधिक हो रहा है, या हेमंत में प्रकृति में रूक्षता के कारण खुजली बढ़ गयी है। पर जो असंवेदनशील या प्रकृति स्वरूप के अज्ञाता है, वह इसे प्रोस्टेट की बीमारी समझकर जहरीले रसायनों से निर्मित औषधियों का सेवन करके अपने ही हाथों अपने स्वास्थ्य और धन दोनों का नाश कर लेते है।
अब पंचतत्व चिकित्सा में ऐसे लोगों के शरीर से जल तत्व को दूसरे तत्व से नियंत्रित या जल तत्व को संतुलित या उसे उस समस्या से छुटकारा मिल जाता है। यही पंचतत्व चिकित्सा का उचार पद्धति है, जिसके हजारो प्रमाण स्थान के पास उपलब्ध है।
इसे थोड़ा और समझिए आप देखोगें तो ज्ञात होगा की जिसकी ऊर्जा जल प्रधान है उसको जल से सम्बन्धित अनेक रोग अलग-अलग जलवायु या उसी तत्व के जलवायु में मिलेंगे जैसे- नींद न आना, डरावने सपने आना, डरना, भयभीत होना, किसी भी अंग का सूखना या सिकुड़ना, किसी नस-नाड़ी का बन्द होना, दूसरों को बेवजह ही समझाते रहना, अकारण ही सबके हाल चाल पूँछना, सबसे अपना दुःख-दर्द करना, सम्मान की विशेश चाह रखना, किसी का सहारा लिए बिना काम ना कर पाना । अकेले रहने से घबराना आदि यह बातें जल तत्व के असंतुलन होने से प्रकट होती है।
अब इतनी सारी समस्याओं का इलाज कराने जायेगे तो बहुत सारे स्पेशलिस्ट लगाने पड़ेगे, अनेकों टेस्ट कराने पड़गें फिर भी यह दवाओं से ठीक नहीं होगा, बल्कि आप मानसिक बीमार अवश्य हो जाएंगे। लेकिन पंचतत्व चिकित्सा में केवल जल के एक बिंदु पर ट्रीट करके इतनी समस्याओं से छुटकारा मिल जाता है।
इसी तरह हर तत्व का अपना एक विशेष मौसम व उम्र होती है, जिसका शरीर जिस तत्व की प्रधानता में होगा वह उस तत्व के मौसम व उम्र के अनुरूप उस तत्व के संभावित गुणों के लक्षण संबंधित रोगी में प्रकट हो जायेगे।
आज की आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में ऐसे अनेकों लक्षणों के नामों से अलग-अलग स्पेशलिस्ट बैठै है, जो रोगी समाज को गुमराह कर रहे है।
अतः जो सर्दी में रोग ग्रस्त हुआ है उसकी प्रकृति जल प्रधान है और जो गर्मी में रोग ग्रस्त हुआ है उसकी प्रकृति अग्नि प्रधान है अतः इसकी सही चिकित्सा यही है कि मौसम व उम्र के अनुरूप हम संबंधित तत्व की मात्रा को संतुलित कर दे, ना कि बाहर से रासायनिक औषधियों से उन लक्षणों को दबाया जाए।
पंचतत्व संस्थान द्वारा रोगियों को चिकित्सा निर्देश -
1. रोगी अवधारणा जो:- जो रोगी यह सोचते है कि उन्हें आज आराम मिलेगा तभी अगले दिन दिखाने जायेंगे या इस चिकित्सा का कैसा शुल्क ? ऐसे रोगी ध्यान रखे दुनियाँ की कोई भी चिकित्सा थेरेपी बिना रोगी की समुचित जाँच किये समाधान नहीं दे सकती। अतः तुरन्त आराम चाहने वाले, तथा दर्द निवारक गोलियाँ खाकर अपनी किडनी, लीवर आदि अंगो को क्षति पहुँचाने वाले संकीर्ण विचारों वाले रोगी दूर रहे।
2. चिकित्सा अवधि:- जो रागी कम से कम 3 से 5 दिन अथवा गंभीर, असाध्य व अनुवांशिक रोगों में सतत धैर्य के साथ चिकित्सा लेने में सक्षम हो कवल वही रोगी पंचतत्व चिकित्सा ले।
3. रोगी सतर्कता:- चिकित्सा लेने के बाद किसी प्रकार की असहजता महसूस होने परहाथ-पैर पर लगे कलर को तुरंत हटा दे अन्यथा अगले दिन सुबह हटाये।
4. चिकित्सोपरांत अनुपालन:- रोगी चिकित्सा लेने के बाद चिकित्सक के पास 10 से 15 मिनट तक रूके। चिकित्सा केन्द्र पर या घर आने के बाद आपको कुछ असहज महसूस हो तो तुरंत चिकित्सक द्वारा लगाये रंग को स्वतः हटा दे।
5. रोगी सहयोग:- जैसे-जैसे आपको आराम मिलता जाए आप चिकित्सक को क्रमशः प्रतिदिन के अंतर को बताते रहे, जिससे आपको अंत में लगाए गए बिंदु ; पर घर पर स्वतः लगाने का अभ्यान हो सके और आप जैसे-जैसे स्वस्थ होते जाए उसी तरह से तीसरे चौथे या सप्ताह के अंतर से दिखाते रहे।